Thursday, February 24, 2011

एक अकेला इस शहरमे

एक अकेला इस शहरमे, रातमे और दोपहरमे
आबुदाना ढुंढता है, आशियाना ढुंढता है
दिन खाली खाली बरतन है और रात है जैसे अंधा कुंआ
इन सुनी अंधेरी आंखोंसे आंसूओंकी जगह आता है धुंआ
जानेकी वजह तो कोई नहीं मरनेका बहाना ढुंढता है
एक अकेला इस शहर मे…
इन उमरसे लम्बी सडकोंको मंज़िलपे पहुंचते देखा नही
बस दौडती फिरती रहती है हमने तो ठेहेरते देखा नही
इस अजनबीसे शहरमे जाना पहचाना ढुंढता है
एक अकेला इस शहर मे…



विडंबन


एक भुकेला इस स्वयंपाकघर मे, रातमे और दोपहरमे
साबुदाणा ढुंढता है, शेंगदाणा ढुंढता है
ओट्याखाली खाली बरतन है और रॉकेल है जैसे खतम हुआ
इन भिगी लकडीयोंसे आग की जगह आता है धुंआ
खिचडी की वजह तो कोई नहीं तुप खानेका बहाना ढुंढता है
एक भुकेला इस स्वयंपाकघर मे…
इन हरीभरी लम्बी मिरचीयोंको जिरा फोडणी पे जलते देना नही
बस शेंगदाणा कुटकी जरुरत रहती है हमने तो और कुछ डाला नही
इस नमकसे खिचडीमे जाना पहचाना स्वाद ढुंढता है
एक भुकेला इस स्वयंपाकघर मे…

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हर गडी बदल रही रूप जिन्दगी...